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भारतीय दर्शन का उद्भव मनुष्य की गहन जिज्ञासाओं और ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने की प्रवृत्ति से हुआ। प्राचीन काल में, मनुष्य ने प्रकृति की घटनाओं, जीवन, मृत्यु, आत्मा, और परमात्मा के संबंध में प्रश्न उठाए। इन प्रश्नों के उत्तर खोजने की प्रक्रिया में भारतीय दर्शन का विकास हुआ। यह दर्शन वेदों, उपनिषदों, और महाकाव्यों में प्रकट होता है और मानव जीवन को सही दिशा देने वाला मार्गदर्शन प्रस्तुत करता है। भारतीय मनीषियों ने न केवल तर्क और अनुभव से जीवन के सिद्धांत गढ़े, बल्कि इन सिद्धांतों को व्यावहारिक जीवन में अपनाने के लिए ध्यान, योग, और नैतिक आचरण के उपाय भी सुझाए।


भारतीय दर्शन का आरंभ वेदों से हुआ, जो मानव सभ्यता के सबसे प्राचीन ग्रंथों में से एक हैं। चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद – में प्रकृति के देवताओं, यज्ञों, और धर्म के सिद्धांतों का वर्णन है।

  • इस युग में मुख्य रूप से धार्मिक अनुष्ठानों और यज्ञों को महत्व दिया गया।
  • धीरे-धीरे ऋषियों ने आत्मा और परमात्मा के संबंध में चिंतन करना शुरू किया, जिससे दर्शन के गहन सिद्धांत विकसित होने लगे।

उपनिषदों को भारतीय दर्शन का आधार माना जाता है। इन्हें वेदों का ‘ज्ञान-कांड’ कहा गया है, जिसमें आत्मा (आत्मन्) और परमात्मा (ब्रह्म) के गूढ़ प्रश्नों की विवेचना की गई है।

  • इस युग में दर्शन का केंद्र कर्मकांड से हटकर आध्यात्मिक ज्ञान की ओर मुड़ गया।
  • उपनिषदों ने अद्वैतवाद (ब्रह्म और आत्मा की एकता) और मोक्ष के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जो आगे चलकर वेदांत दर्शन का आधार बना।

महाकाव्य महाभारत और उसमें निहित भगवद्गीता ने भारतीय दर्शन को सरल और व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत किया।

  • गीता में कर्म, भक्ति, और ज्ञान को जीवन के तीन मार्गों के रूप में बताया गया, जिससे व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
  • गीता के सिद्धांतों ने दर्शन को आम जीवन से जोड़ा और यह बताया कि कर्तव्य पालन और नैतिकता का पालन भी आत्मिक उन्नति के साधन हो सकते हैं।

इस समय भारत में बौद्ध और जैन दर्शन का उद्भव हुआ। इन दर्शनों ने वैदिक कर्मकांड की आलोचना करते हुए आत्मज्ञान, अहिंसा, और तपस्या का मार्ग प्रस्तुत किया।

  • बौद्ध दर्शन ने दुःख और उसके निवारण के चार आर्य सत्यों का प्रतिपादन किया और अष्टांगिक मार्ग से निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग दिखाया।
  • जैन दर्शन ने आत्मा की शुद्धि और कर्म बंधनों से मुक्ति के लिए अहिंसा और तपस्या पर बल दिया।

इस अवधि में भारतीय दर्शन के आस्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के दर्शनों का विकास हुआ।

  • आस्तिक दर्शन: ये वेदों को प्रमाण मानते हैं, जिनमें सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, और वेदांत प्रमुख हैं।
  • सांख्य दर्शन: प्रकृति (प्रकृति) और पुरुष (आत्मा) के द्वैत पर आधारित।
  • योग दर्शन: पतंजलि का योग, जो आत्मा की शुद्धि के लिए ध्यान और साधना का मार्ग प्रस्तुत करता है।
  • वेदांत दर्शन: शंकराचार्य का अद्वैतवाद, जिसमें आत्मा और ब्रह्म की एकता पर जोर दिया गया है।
  • नास्तिक दर्शन: ये वेदों को प्रमाण नहीं मानते, जिनमें चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शन प्रमुख हैं।
  • चार्वाक दर्शन: भौतिकवादी दृष्टिकोण को मानता है और आत्मा या पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता।

मध्यकाल में भक्ति आंदोलन ने भारतीय दर्शन को भावनात्मक और भक्ति-प्रधान बना दिया।

  • रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, और चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति मार्ग को लोकप्रिय बनाया।
  • इस काल में योग और तांत्रिक साधनाओं का भी विकास हुआ, जो आत्मा और परमात्मा की एकता को साधने के व्यावहारिक मार्ग थे।

भारतीय दर्शन का विकास इसलिए संभव हुआ क्योंकि यह जीवन के व्यावहारिक, नैतिक, और आध्यात्मिक पक्षों को समेटे हुए है। यह दर्शन जीवन की समस्याओं का समाधान न केवल तर्क के माध्यम से देता है, बल्कि आत्मिक शांति और मुक्ति का मार्ग भी दिखाता है। विभिन्न युगों में बदलते समाज और मान्यताओं के अनुसार, इसने स्वयं को ढाला और समृद्ध किया।


भारतीय दर्शन का उद्भव मानवता की उन जिज्ञासाओं से हुआ, जो जीवन और ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने के लिए उठीं। इसका प्रारंभ वेदों और उपनिषदों से हुआ, लेकिन समय के साथ इसमें कई अन्य विचारधाराएँ भी जुड़ीं, जैसे – बौद्ध, जैन, और चार्वाक दर्शन। भारतीय दर्शन की यह विशेषता रही है कि इसने न केवल सिद्धांतों का विकास किया, बल्कि व्यावहारिक मार्गदर्शन भी दिया, जिससे व्यक्ति जीवन में शांति और मोक्ष प्राप्त कर सके। आज भी भारतीय दर्शन मानवता को आत्मिक शांति और नैतिकता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

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